Monday, July 16, 2018

बाद में पता चला कि जिसे लोग भूत कहते हैं वो दरअसल यूरेनियम से होने वाला रेड

"दो गांवों को जोड़ने वाले रास्ते पर एक बरगद का पेड़ था. लोग बोलते थे कि उस बरगद के पेड़ पर भूत रहता है और किसी गर्भवती महिला को उस रास्ते से गुज़रना नहीं चाहिए वरना उसके बच्चे को भूत खा जाएगा या हाथ-पैर तोड़ देगा. बाद में पता चला कि जिसे लोग भूत कहते हैं वो दरअसल यूरेनियम से होने वाला रेडिएशन था. रेडिएशन का पहला शिकार मां .

ये कहानी सुनने को मिली झारखंड के जादूगोड़ा में. वही झारखंड जहाँ की यूरेनियम खदानों पर भारत के न्यूक्लियर सपनों को पूरा करने का भार है. सलमा, बुत्ती और शांति कहती हैं कि उन्होंने इन सपनों की क़ीमत चुकाई है. सलमा सोरेन के पाँच बच्चे मरे हुए पैदा हुए, बुत्ती को छह मरे हुए बच्चे पैदा हुए और शांति का दावा है कि पाँच बार बिना किसी वजह के उन्हें गर्भपात होता रहा. शायद ये ‘रेडिएशन का भूत’ ही रहा होगा.
झारखंड में यूरेनियम कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) कंपनी 1967 से यूरेनियम माइनिंग कर रही है.देश के न्यूक्लियर रिएक्टरों के लिए 50 सालों से वहाँ से यूरेनियम आ रहा है. झारखंड के पूर्वी सिंघभूम ज़िले में सात यूरेनियम माइंस है - जादूगोड़ा, भाटिन, नरवापहाड़, बागजाता, बांदुहुरंगा, तुरामडीह और मोहुलडीह. लेकिन नब्बे का दशक खत्म होते-होते यहां पर सैकड़ों बच्चे विकलांग नज़र आने.

यूरेनियम निकालने के दौरान काफ़ी मलबा निकलता है. अगर एक किलोग्राम यूरेनियम निकलता है तो 1750 किलोग्राम रेडियोऐक्टिव कचरा बनता है. यूरेनियम कचरा जहां इकट्ठा होता है उसे टेलिंग पॉन्ड या टेलिंग तालाब कहा जाता है. फ़िलहाल जादूगोड़ा और तुरामडीह में कई एकड़ में फैले दो टेलिंग तालाब हैं. यूसीआईएल की अपनी रिपोर्ट भी ये कहती है कि इन टेलिंग तालाबों में रेडियोऐक्टिव तत्व होते हैं.
लोग इन टेलिंग पॉन्ड के जितना नज़दीक़ रहेंगे उनके स्वास्थ्य को उतना ही ख़तरा बढ़ेगा. आज भी जादूगोड़ा और तुरामडीह टेलिंग पॉन्ड्स के 100-200 मीटर के दायरे में ढेरों परिवार रहते हैं.

जादूगोड़ा टेलिंग तालाब के पास चाटीकोच्चा टोले में तकरीबन 70 परिवार रहते हैं.
वहां रहने वाले रत्न मांझी ने बताया कि बरसात में उस तालाब का पानी उनके घर में घुस जाता है. मांझी के मुताबिक, "हमारी ज़मीन 1997 में कंपनी ने ली थी और बदले में बेटे को नौकरी भी दी. हमें कहा था कि किसी और जगह बसा देंगे लेकिन अभी तक तो ऐसा हुआ नहीं. हमारी एक एकड़ ज़मीन भी बची हुई है. या तो इसे भी खरीद लें या हमें दूसरी जगह ज़मीन दिलवा दें. इस ज़मीन पर अब खेती भी नहीं होती. टेलिंग के पानी से ख़राब हो गई है."

इसी टोले के पिथो मांझी बताते हैं, "जिस गांव में हमें बसाया जाना था, उस ग्राम सभा से कंपनी ने एनओसी ही नहीं ली है अब तक."
टेलिंग पॉन्ड के साथ लगे डुंगरीडीह इलाके का हाल तो और बुरा है. साल 2008 और 2012 में टेलिंग पॉन्ड की पाइप फटने से रेडियोऐक्टिव कचरे वाला पानी लोगों के घरों में घुस गया था.
लोगों ने बताया कि कंपनी ने उन्हें किसी और जगह बसाने के लिए लिखित समझौता किया था लेकिन आज तक तो कुछ हुआ नहीं. बस एक पानी की टंकी उन लोगों के लिए वहां बना दी गई है, जिससे उनकी रोज़मर्रा की ज़रूरतें पूरी होती रहें.
इसके अलावा तुरामडीह टेलिंग पॉन्ड के पास चार टोले अब भी रह रहे हैं. मगर इस पूरे मामले पर यूसीआईएल का कहना है कि ये लोग यहाँ से खुद ही नहीं जाना चाहते.
इस इलाक़े में रेडिएशन के ख़तरों के प्रति लोगों को आगाह करने के लिए काम कर रही है संस्था झारखंडी आर्गेनाइज़ेशन अगेंस्ट रेडिएशन. घनश्याम बिरूली इस संस्था के लिए काम करते हैं. उन्होंने ही मुझे रेडिएशन के भूत की कहानी सुनाई थी. उनकी संस्था ने 90 के दशक में यहां रेडिएशन की समस्या को उठाना शुरू किया था.

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